आज अगर आप टीवी पर कोई चैनल देखते हुए
उकता जाते हैं तो फ़ौरन रिमोट से चैनल बदल देते हैं. टीवी पर विज्ञापनों
के आते ही आवाज़ को म्यूट कर देते हैं. टीवी पर जो भी दिख रहा है, उसे
देखें न देखें, सुनें न सुनें, इसका फ़ैसला दर्शकों के हाथ में होता है.
अपनी पसंद-नापसंद वो रिमोट के ज़रिए आसानी से ज़ाहिर करते हैं.
लेकिन, टीवी के दर्शक के हाथ में ये ताक़त यानी रिमोट किसने दी? क्या आप को पता है कि टीवी के रिमोट का आविष्कार कैसे हुआ ?इसकी शुरुआत एक चैलेंज के तौर पर हुई थी. के दशक में अमरीकी इलेक्ट्रॉनिक्स कंपनी ज़ेनिथ के प्रमुख यूजीन एफ़ मैक्डॉनल्ड ने कंपनी के इंजीनियरों को एक चुनौती दी.
असल में यूजीन को उस वक़्त बहुत कोफ़्त होती थी जब टीवी चैनलों पर विज्ञापन आने लगते थे. विज्ञापन के दौरान अगर चैनल बदलना हो तो हर बार उठकर टीवी के पास जाना होता था. उसके 'कान उमेठने' पड़ते थे. यूजीन को पूरी कवायद से परेशानी होती थी.
तो, यूजीन ने अपनी कंपनी के इंजीनियरों से कहा कि वो ऐसा यंत्र बनाएं, जिससे वो दूर से बैठे-बैठे ही टीवी के चैनल बदल सकें या विज्ञापन आते वक़्त टीवी की
यूजीन की इसी ख़्वाहिश ने टीवी के रिमोट को जन्म दिया बल्कि यूजीन की इस इच्छा से एक इंक़लाब पैदा किया. इसके बाद दर्शक केवल दर्शक नहीं, मालिक बन गया. अगर वो कोई चैनल नहीं पसंद करता था, तो बस एक बटन दबाकर वो चैनल बदल सकता था. शोर मचाते विज्ञापनों का मुंह बंद कर सकता था.
ज़ेनिथ कंपनी ने जो यंत्र बनाया, उसे रिमोट नहीं, फ़्लैशमैटिक कहते थे. इसे ज़ेनिथ कंपनी के इंजीनियर यूजीन पॉले ने बनाया था. फ़्लैशमैटिक को 1955 में बाज़ार में उतारा गया.
ज़ेनिथ कंपनी की मालिक कंपनी एलजी के प्रेस डायरेक्टर जॉन टेलर बताते हैं कि, "फ्लैशमैटिक बनाने वाले यूजीन पॉले इलेक्ट्रिकल इंजीनियर नहीं बल्कि मेकैनिकल इंजीनियर थे. उन्होंने जो मशीन बनाई वो मेकैनिकल ज़्यादा थी."
इससे पहले भी टीवी पर चैनल बदलने वाली मशीनें थीं. लेकिन उन्हें टीवी से जोड़ना पड़ता था. इनमें से सबसे ज़्यादा लोकप्रिय ख़ुद ज़ेनिथ कंपनी का 'लेज़ी बोन्स' नाम का यंत्र था. इसकी मदद से टीवी चैनल बदले जा सकते थे. 'लेज़ी बोन्स' से टीवी को ऑन-ऑफ़ भी किया जा सकता था. मगर ये विज्ञापनों के वक़्त टीवी की आवाज़ बंद नहीं कर सकता था.
लेकिन, ये नई मशीन यानी फ्लैशमैटिक पूरी तरह से टीवी से मुक्त था. ये सेंसर के ज़रिए टीवी पर एक ख़ास जगह पर रोशनी डालता था, जिससे टीवी पर चैनल बदल जाता था. जॉन टेलर बताते हैं कि, "फ्लैशमैटिक की मदद से टीवी के दर्शक चैनल बदल सकते थे और आवाज़ बंद कर सकते थे."
1950 का दशक सोवियत संघ के सैटेलाइट स्पुतनिक और काल्पनिक स्पेस कैरेक्टर बक रोजर्स का था. इसलिए इसे ऐसे डिज़ाइन किया गया था कि ये हरी रोशनी वाली छोटी सी बंदूक जैसा दिखता था.
फ़्लैशमैटिक के साथ दिक़्क़त ये थी कि ये टीवी के चारों कोनों में रोशनी डालकर चैनल बदलता था. लेकिन, कई बार घरों में टीवी ऐसी जगह लगा होता था, जहां सूरज की रोशनी भी पड़ती थी. ऐसे में कई बार अचानक बंद हुआ टीवी चल जाता था, या चलता हुआ टेलिविज़न बंद हो जाता था. इससे हंगामा बरपा हो जाता था.
फ़्लैशमैटिक की क़ीमत भी बहुत ज़्यादा थी. उस वक़्त अमरीका में अच्छा टीवी सेट 600 डॉलर में आ जाता था. वहीं फ़्लैशमैटिक के लिए 100 डॉलर ख़र्च करने पड़ते थे.सी वजह से फ़्लैशमैटिक के डिज़ाइन में बदलाव किया गया. इस बार ये ज़िम्मेदारी मिली ज़ेनिथ के इलेक्ट्रिकल इंजीनियर रॉबर्ट एडलर को. एडलर ने जो आविष्कार किया, उसमें रोशनी से रिमोट चलाने के तरीक़े को ख़त्म कर दिया गया.
उन्होंने टीवी सेट और रिमोट के बीच संपर्क बनाने के लिए रेडियो तरंगों की मदद लेनी चाही. लेकिन रेडियो तरंगें इतनी ताक़तवर होती हैं कि जब आप अपने टीवी चैनल बदलने के लिए रिमोट का बटन दबाते, तो पूरी बिल्डिंग के टीवी चैनल बदल जाते.
इसीलिए रॉबर्ट एडलर ने रिमोट से टीवी चलाने के लिए आवाज़ के इस्तेमाल का फ़ैसला किया. ज़ेनिथ के नए रिमोट का नाम था 'स्पेस कमांड'. ये अल्ट्रासोनिक मशीन थी.
इसमें एल्यूमिनियम की छोटी छड़ें लगी हुई थीं. ये ख़ास फ्रीक्वेंसी पर आवाज़ें पैदा करती थीं. जिनकी वजह से टीवी ऑन-ऑफ़ होते थे और चैनल बदलते थे.
अमरीकी लेखक स्टीवेन बेसक्लोस कहते हैं कि स्पेस कमांड बहुत साधारण मशीन थी. इससे गिने-चुने काम लिए जा सकते थे. ये आज के रिमोट जैसी मशीन नहीं थी, जिसमें क़तार से बटन लगे होते हैं.
स्पेस कमांड में केवल चार बटन होते थे. बटन दबाने पर इनमें से हल्की सी जुम्बिश के साथ आवाज़ होती थी. इसीलिए इसे 'द क्लिकर' कहकर भी बुलाया जाता था. इस तरह के रिमोट कंट्रोल 1980 के दशक तक इस्तेमाल होते रहे थे.
स्पेस कमांड जैसे रिमोट में जो रेडियो फ्रीक्वेंसी इस्तेमाल हो रही थी, उसे इंसान तो सुन नहीं पाते थे. लेकिन कई जानवरों जैसे पालतू-कुत्तों बिल्लियों के कान ज़रूर खड़े हो जाते थे. लेकिन, एक अफ़वाह ये उड़ी कि जब इसे लैब में टेस्ट किया जा रहा था तो एक महिला बटन दबाने पर अजीब बर्ताव करने लगी थी. हालांकि, जॉन टेलर इसे ग़लत बताते हैं.
1970 के दशक तक टीवी रिमोट में गिने-चुने बटन होते थे. रिमोट में और बटनों की ज़रूरत तो बीबीसी ने पैदा की.
बीबीसी ने 1974 में सीफ़ैक्स नाम की सेवा शुरू की. ये मैसेज होते थे, जो टीवी के दर्शकों को ख़बरें, खेल और वित्तीय जानकारियां देते थे. इन्हें टीवी की स्क्रीन पर देखा जा सकता था. लेकिन, सीफैक्स के पेज खोलने के लिए सामान्य रिमोट काम नहीं आता था. इसलिए नंबर के कीपैड वाले रिमोट को ईजाद किया गया, जो ये पेज खोलने में दर्शक के लिए मददगार था.
इसी बदलाव के बाद आज के दौर के रिमोट का विकास शुरू हुआ. जिसमें इन्फ्रा-रेड किरणों के ज़रिए रिमोट से टीवी को चलाया जा सकता था. इसके ज़रिए टीवी को कई निर्देश दिए जा सकते थे.
1990 के दशक में केबल टीवी के विस्तार और वीडियो रिकॉर्डर, डीवीडी प्लेयर और वीडियो गेम के बढ़ते इस्तेमाल के चलते रिमोट में बहुत सारे फंक्शन दिए जाने लगेपत्रिका स्लेट में एक लेखक ने लिखा कि आज की तारीख़ में रिमोट में 92 तक बटन होते हैं, जो आप को अचानक से तानाशाह होने का एहसास कराते हैं, क्योंकि इनमें लिखा होता है, पावर, फ्रीज़ या फिर अजीबोग़रीब कमांड... जैसे सुर, नावी लिखे होते हैं जबकि आम दर्शक ज़्यादा से ज़्यादा 30-35 बटन ही इस्तेमाल करता है.1980 के दशक में सैकड़ों हज़ारों टीवी चैनल दिखने शुरू हो गए थे. इसकी वजह से रिमोट का इस्तेमाल भी काफ़ी बढ़ गया. इन्हें चलाना बहुत बड़ी चुनौती बन गया.
अच्छी बात ये है कि एक बार फिर से रिमोट की दुनिया बदल रही है. पहली बात तो ये कि हम उतना टीवी नहीं देख रहे हैं, जितना आज से एक दशक पहले देखते थे और आज तो रिमोट पकड़ने की ज़रूरत भी ख़त्म होती जा रही है.
अब आप बोलकर ही टीवी को हुक्म दे सकते हैं. आज आप को सोफ़े में दुबके टीवी के रिमोट को तलाशने के बजाय अमेज़न इको या गूगल डॉट को फ़रमान जारी करना होता है. वक़्त-वक़्त की बात है.
आवाज़ बंद कर सकें.
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