ब्लू प्लैनेट II के बारे में हाल ही
के एक इंटरव्यू में, डेविड एटेनबोरो ने एक दृश्य का वर्णन किया जिसमें एक
एल्बेट्रोस अपने बच्चों को खाना खिलाने के लिए घोंसले में आती है.
उन्होंने कहा, "जानते हैं उसके मुंह से बाहर क्या आया? ना मछली, और ना स्क्विड- जो
वो ज़्यादातर खाते हैं. बल्कि उसके मुंह से बाहर निकला प्लास्टिक."एटेनबोरो कहते हैं कि ये दिल को काफ़ी चोट पहुंचाने वाला और साथ ही बेहद अजीब था. एल्बेट्रोस अपने पसंदीदा शिकार के लिए कई हज़ार किलोमीटर लंबा सफ़र करती है. वह पानी से अपना शिकार बड़ी आसानी से पकड़ लेती है.
ऐसे में इतने समझदार पक्षी का इतनी आसानी से मूर्ख बन जाना और शिकार के लिए इतना लंबा सफर तय करने के बाद मुंह में प्लास्टिक भर कर लाना समझ नहीं आता.
तसल्ली की बात ये है कि ऐसा करने वालों में एल्बेट्रोस अकेली नहीं है. छोटे-छोटे जीवों से लेकर बड़ी व्हेल मछली तक समुद्री जीवों की लगभग 180 प्रजातियां प्लास्टिक खा रही हैंयहां तक की प्लास्टिक उन मछलियों के अंदर भी पाया गया है जिन्हें हम रोज खाते हैं. यही नहीं, हमारे पसंदीदा लॉबस्टर्स और मुसेल्स के अंदर भी प्लास्टिक पाई जाती है.
संक्षेप में कहें तो हर आकार-प्रकार के जीव प्लास्टिक खा रहे हैं और सालाना जो 12.7 मिलियन टन कचरा समुद्र में मिल रहा है, उससे स्थिति और भी चिंताजनक होती जा रही है.
समुद्र में प्लास्टिक की भरी मात्रा मौजूद होने की वजह से समुद्री जीव इस तरह बेतहाशा प्लास्टिक खा रहे हैं. उदाहरण के लिए ज़ूप्लैंकटॉन्स, पानी में मौजूद प्लास्टिक के छोटे कणों को ही खा पाते हैं क्योंकि वो एक खास आकार तक के कण ही खा पाते हैं.
कनाडा के इंस्टिट्यूट को ओशन साइंस की प्लैंकटॉन इकोलॉजिस्ट मोइरा गाल ब्रेथ का कहना है कि "उनके लिए अगर प्लास्टिक का कोई कण आकार में फिट बैठता है तो वह उनका खाना है."
ज़ूप्लैंकटॉन्स की ही तरह 'सी कुकुम्बर' नामक बेलनाकर जीव इस बात की ज़्यादा फिक्र नहीं करते कि वे क्या खा रहे हैं. समुद्री तल पर रेंगते हुए वे गाद को कुरेदते हैं और अपना खाना ढूंढ निकालते हैं. एक विश्लेषण से यह पता चला है कि समुद्र तल में रहने वाले ये जीव अपेक्षित मात्रा से 138 गुना ज़्यादा प्लास्टिक खा सकते हैं.
'सी कुकुम्बर' के लिए सामान्य खाने के मुकाबले प्लास्टिक के कणों को अपने स्पर्शकों से पकड़ना आसान होता है क्योंकि ये कण बड़े और पकड़ने में आसान होते हैं, लेकिन बाकी प्रजातियाँ मजबूरन ही प्लास्टिक नहीं खाती हैं.
बहुत से जीव अपनी मर्ज़ी से प्लास्टिक खा रहे हैं. ये जानने के लिए कि जीवों को प्लास्टिक इतना पसंद क्यों आता है, हमें ये जानने की ज़रूरत है कि वो दुनिया को कैसे देखते हैं.
कैलिफोर्निया की NOAA साउथवेस्ट फिशरीज़ साइंस सेंटर के मैथ्यू सैवोका का कहना है, "जानवरों की अनुभव और संवेदन क्षमता हमसे हमसे बहुत भिन्न होती है. कुछ स्थितियों में वह हमसे बेहतर होती है, कुछ में ख़राब लेकिन वह निश्चित रूप से हमसे भिन्न होती है.''
एक तर्क यह दिया जाता है कि जानवर कई बार ग़लती से प्लास्टिक खा लेते हैं. चूंकि वह दिखने में किसी जानी-पहचानी खाने वाली वस्तु जैसी दिखती है, इसलिए उन्हें भ्रम हो जाता है. उदाहरण के लिए उन्हें प्लास्टिक पैलेट्स दिखने में मछली के स्वादिष्ट अंडों जैसे लगते हैं.
एल्बेट्रोस सहित अधिकांश समुद्री जीव भोजन की तलाश करते समय मुख्य रूप से अपनी सूंघने की शक्ति पर निर्भर करते हैं. सैवोका और उनके साथियों ने एक प्रयोग किया जिससे ये पता लगा कि मछलियों और समुद्री पक्षियों की कुछ प्रजातियां प्लास्टिक की गंध से उसकी तरफ आकर्षित होती हैं.
उन्होंने खासकर 'डाइमिथाइल सल्फाइड' (डीएमएस) के बारे में बताया. यह एक ऐसा पदार्थ है जो शिकार कर रहे पक्षियों को आकर्षित करता है और संभवत: यही वो रसायन है जो प्लास्टिक से निकलता है.
दरअसल तैरते हुए प्लास्टिक पर 'एल्गी' पनपती है, जब इस 'एल्गी' को क्रिल खाते हैं, जो समुद्री भोजन का एक बड़ा स्रोत हैं, तो इससे DMS निकलता है.
परिणामस्वरूप जो पक्षी और मछलियां दरअसल क्रिल को खाने आते हैं, वे इस डीएमएस की ओर आकर्षित हो कर प्लास्टिक खा जाते हैं.
अगर हम देखने की क्षमता की बात करें, तो वह भी समुद्री जीवों के प्लास्टिक खाने से काफ़ी हद तक संबन्धित है. इंसानों की तरह समुद्री कछुए भी खाने की खोज के लिए अपनी देखने की क्षमता पर निर्भर करते हैं. हालांकि माना जाता है कि उनके पास UV लाइट देखने की विशिष्ट क्षमता है, जो उनकी दृष्टि-क्षमता को हमसे कुछ अलग बनाता है.
ऑस्ट्रेलिया की यूनिवर्सिटी ऑफ़ क्वींसलैंड के क़मर श्क्वेलर ने समुद्री कछुओं की देखने की क्षमता को परखने के लिए उनके दिमाग को पढ़ते हुए ये जानने की कोशिश की है कि उन कछुओं को ये प्लास्टिक दिखने में कैसा लगता है. उन्होंने मरे हुए कछुओं के पेट का भी निरीक्षण किया ताकि ये पता लगाया जा सके कि उनकी पसंद का प्लास्टिक कौन सा है.
शोध से वो इस नतीजे पर पहुंची कि जहां उम्र में छोटे कछुए किसी भी तरह की प्लास्टिक खा लेते हैं वहीं बड़ी उम्र के कछुओं को मुलायम और पारदर्शी प्लास्टिक पसंद होती है.
श्क्वेलर का मानना है कि उनका ये शोध इस बात को सिद्ध करता है कि कछुए प्लास्टिक की थैलियों को स्वादिष्ट जेलीफिश समझने की ग़लती कर बैठते हैं.
प्लास्टिक के उपभोग में उसके रंग का भी महत्व है. श्क्वेलर और उसके साथियों ने ये पाया कि छोटी उम्र के कछुओं को सफेद प्लास्टिक पसंद है, जबकि 'शीयरॉटर' को लाल प्लास्टिक अच्छा लगता है.ष्टि और गंध के अलावा, कई और इंद्रियां भी हैं जिनका इस्तेमाल जीव खाना ढूढने में करते हैं. कई समुद्री जीव 'इकोलोकेशन' के आधार पर शिकार करते है, खासकर दांतों वाली व्हेल और डॉल्फिन.
'इकोलोकेशन' काफी संवेदनशील कारक माना जाता है, लेकिन बावजूद इसके कई दर्जन स्पर्म व्हेल और दांतों वाली व्हेल पेट में प्लास्टिक के थैले, कारों के पार्ट्स और बाकि इंसानी गंद भर जाने के कारण मर जाती हैं.
श्क्वेलर के अनुसार यह संभव है कि उनका 'इकोलोकेशन' इन चीजों को खाना समझने की ग़लती कर बैठता हो.
श्क्वेलर का कहना है, "ये एक ग़लत धारणा है कि ये जीव मूर्ख होते हैं और प्लास्टिक बस इसलिए खा जाते हैं क्योंकि वही इनके आस-पास होता है. यह सच नहीं है. दुख की बात ये है कि ये जीव काफी मंझे हुए शिकारी होते हैं और इनके पास शानदार संवेदन शक्ति होती है जो इनका खाना ढूँढने में इनकी मदद करती है."
प्लास्टिक का इस्तेमाल सभी किसी न किसी रूप में करते हैं. ये सिर्फ खाने जैसा दिखता ही नहीं है बल्कि इसकी गंध और इसका एहसास भी खाने जैसा होता है.
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