देश की सर्वोच्च अदालत ने दो वयस्कों के बीच आपसी सहमति से बनाए गए यौन संबंध को आपराधिक कृत्य बताने वाली
आईपीसी की धारा-377 की क़ानूनी वैधता जाँचने का ज़िम्मा उठाया है.आईपीसी
की धारा-377 के मुताबिक़, अगर कोई व्यक्ति अप्राकृतिक रूप से यौन संबंध
बनाता है तो उसे उम्रक़ैद या जुर्माने के साथ दस साल तक की क़ैद हो सकती
है.आईपीसी की ये धारा लगभग 150 साल पुरानी है और महारानी विक्टोरिया के दौर की नैतिकता का अवशेष मात्र है.सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला जल्द]
समलैंगिकों को मूलत: एलजीबीटीक्यू (लेस्बियन, गे, बाय-सेक्शुअल्स, ट्रांसजेंडर्स और क्वीर) कहा जाता है.
अक्तूबर, 2017 तक दुनिया के 25 देशों में समलैंगिकों के बीच यौन संबंध को क़ानूनी मान्यता मिल चुकी है.
सुप्रीम कोर्ट में इस मामले की सुनवाई चीफ़ जस्टिस दीपक मिश्रा, जस्टिस रोहिंगटन नरीमन, जस्टिस एएम कनविलकर, जस्टिस डीवाय चंद्रचूड़ और जस्टिस इंदू मल्होत्रा की संवैधानिक पीठ कर रही है.
इससे पहले 9 जज़ों की बैंच निजता के अधिकार को मूल अधिकार करार दे चुकी है और अब इन पाँच जजों की ये बेंच ये देखेगी कि क्या मौलिक अधिकार और जीवन जीने का अधिकार में यौन स्वतंत्रता भी शामिल है.
आईपीसी की धारा-377 को असंवैधानिक करार दिए जाने के लिए सुप्रीम कोर्ट में याचिकाएँ दायर की गई थीं जिन पर बीती 10 जुलाई से सुनवाई चल रही है.
तीन दिनों की सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने पर्याप्त संकेत दिए हैं कि वह आईपीसी की इस धारा को असंवैधानिक करार देकर समलैंगिकों को आज़ादी के साथ जीने का अधिकार देगी.कोर्ट ने अपनी टिप्पणी में कहा है कि वह पहले ही जीवनसाथी चुनने के अधिकार को जीवन जीने के अधिकार के रूप में मान्यता दे चुकी है और यही तर्क इस अधिकार के लिए भी इस्तेमाल किया जा सकता है.
कोर्ट ने कहा है, "एलजीबीटी समुदाय इसे कलंक के रूप में देखती हैं और गे सेक्स की आपराधिकता ख़त्म होने के बाद वे आज़ादी से एक साथ रह सकते हैं. ये कलंक इसलिए है क्योंकि उनके साथ अलग तरह से व्यवहार किया जाता है. एक बार समलैंगिकों के बीच यौन संबंध को अपराध की श्रेणी से बाहर कर दिया गया फिर वे सशक्त महसूस करेंगे."
कोर्ट ने इस मुद्दे पर जनमत संग्रह की बात करने वाली याचिका को ख़ारिज कर दिया है.ऐसा करते हुए कोर्ट ने कहा है कि वह बहुसंख्यक नैतिकता की जगह संवैधानिक नैतिकता को तरजीह देगी और आईपीसी के सेक्शन-377 को संविधान के अनुच्छेद 14, 19 और 21 के आधार पर देखेगी.गे सेक्स को अपराध की श्रेणी से बाहर निकालने के लिए कोर्ट ने जो खुला समर्थन दिया है उससे अब तक अलग-थलग पड़े समलैंगिक समाजसेवियों को काफ़ी प्रोत्साहन मिला है.
इस तरह का यौन रुझान व्यक्ति की इच्छा की जगह उसके जीन पर आधारित होता है.सामान्य तौर पर एक व्यक्ति को वयस्क होने के दौरान अपने रुझान का पता चलता है. यौन रुझान एक ऐसी चीज़ नहीं है जिसका इलाज नहीं किया जा सकता.निजता के अधिकार पर फ़ैसला आने के बाद ऐसे लोगों को आम यौन रुझान वाले लोगों की अपेक्षा अपनी क्षमताओं के मुताबिक़ सफलताएं हासिल करने, आज़ादी से जीने और समाज द्वारा अपराधियों जैसे सुलूक से बचने के लिए ज़्यादा सुरक्षा की जरूरत होती है.
इस समुदाय की शिकायत ये है कि उन्हें स्कूल से लेकर काम करने की जगह के साथ साथ अपने घरों में भी भेदभाव का सामना करना पड़ता है.साल 2013 में सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली हाई कोर्ट के तीन जजों की पीठ वाले फ़ैसले को निरस्त कर दिया था जिसमें दिल्ली हाई कोर्ट ने गे सेक्स को अपराध की श्रेणी से बाहर कर दिया था.
समलैंगिकों को मूलत: एलजीबीटीक्यू (लेस्बियन, गे, बाय-सेक्शुअल्स, ट्रांसजेंडर्स और क्वीर) कहा जाता है.
अक्तूबर, 2017 तक दुनिया के 25 देशों में समलैंगिकों के बीच यौन संबंध को क़ानूनी मान्यता मिल चुकी है.
सुप्रीम कोर्ट में इस मामले की सुनवाई चीफ़ जस्टिस दीपक मिश्रा, जस्टिस रोहिंगटन नरीमन, जस्टिस एएम कनविलकर, जस्टिस डीवाय चंद्रचूड़ और जस्टिस इंदू मल्होत्रा की संवैधानिक पीठ कर रही है.
इससे पहले 9 जज़ों की बैंच निजता के अधिकार को मूल अधिकार करार दे चुकी है और अब इन पाँच जजों की ये बेंच ये देखेगी कि क्या मौलिक अधिकार और जीवन जीने का अधिकार में यौन स्वतंत्रता भी शामिल है.
आईपीसी की धारा-377 को असंवैधानिक करार दिए जाने के लिए सुप्रीम कोर्ट में याचिकाएँ दायर की गई थीं जिन पर बीती 10 जुलाई से सुनवाई चल रही है.
तीन दिनों की सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने पर्याप्त संकेत दिए हैं कि वह आईपीसी की इस धारा को असंवैधानिक करार देकर समलैंगिकों को आज़ादी के साथ जीने का अधिकार देगी.कोर्ट ने अपनी टिप्पणी में कहा है कि वह पहले ही जीवनसाथी चुनने के अधिकार को जीवन जीने के अधिकार के रूप में मान्यता दे चुकी है और यही तर्क इस अधिकार के लिए भी इस्तेमाल किया जा सकता है.
कोर्ट ने कहा है, "एलजीबीटी समुदाय इसे कलंक के रूप में देखती हैं और गे सेक्स की आपराधिकता ख़त्म होने के बाद वे आज़ादी से एक साथ रह सकते हैं. ये कलंक इसलिए है क्योंकि उनके साथ अलग तरह से व्यवहार किया जाता है. एक बार समलैंगिकों के बीच यौन संबंध को अपराध की श्रेणी से बाहर कर दिया गया फिर वे सशक्त महसूस करेंगे."
कोर्ट ने इस मुद्दे पर जनमत संग्रह की बात करने वाली याचिका को ख़ारिज कर दिया है.ऐसा करते हुए कोर्ट ने कहा है कि वह बहुसंख्यक नैतिकता की जगह संवैधानिक नैतिकता को तरजीह देगी और आईपीसी के सेक्शन-377 को संविधान के अनुच्छेद 14, 19 और 21 के आधार पर देखेगी.गे सेक्स को अपराध की श्रेणी से बाहर निकालने के लिए कोर्ट ने जो खुला समर्थन दिया है उससे अब तक अलग-थलग पड़े समलैंगिक समाजसेवियों को काफ़ी प्रोत्साहन मिला है.
गे सेक्स को क़ानूनी मान्यता देने के तर्क
समलैंगिकों के बीच यौन संबंध को अपराध की श्रेणी में रखा जाना समाज के एक बड़े हिस्से के संवैधानिक और मानवाधिकारों का उल्लंघन है.सामाजिक मान्यता ये है कि समलैंगिकों के बीच संबंध अप्राकृतिक हैं लेकिन ये मान्यता इसे अपराध बताए जाने के लिए एक तर्क नहीं हो सकता.एक वर्ग के रूप में सभी महिलाएं और पुरुष विपरीत सेक्स के व्यक्ति के प्रति आकर्षित नहीं होते हैं. ऐसे लोगों को गे पुरुष, लेस्बियन महिलाएं और बायसेक्शुअल कहा जाता है.इस तरह का यौन रुझान व्यक्ति की इच्छा की जगह उसके जीन पर आधारित होता है.सामान्य तौर पर एक व्यक्ति को वयस्क होने के दौरान अपने रुझान का पता चलता है. यौन रुझान एक ऐसी चीज़ नहीं है जिसका इलाज नहीं किया जा सकता.निजता के अधिकार पर फ़ैसला आने के बाद ऐसे लोगों को आम यौन रुझान वाले लोगों की अपेक्षा अपनी क्षमताओं के मुताबिक़ सफलताएं हासिल करने, आज़ादी से जीने और समाज द्वारा अपराधियों जैसे सुलूक से बचने के लिए ज़्यादा सुरक्षा की जरूरत होती है.
इस समुदाय की शिकायत ये है कि उन्हें स्कूल से लेकर काम करने की जगह के साथ साथ अपने घरों में भी भेदभाव का सामना करना पड़ता है.साल 2013 में सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली हाई कोर्ट के तीन जजों की पीठ वाले फ़ैसले को निरस्त कर दिया था जिसमें दिल्ली हाई कोर्ट ने गे सेक्स को अपराध की श्रेणी से बाहर कर दिया था.
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